Thursday, February 26, 2015

खामोश चीखे___ हरकीरत हीर


नीलिमा शर्मा Neelima Sharrma हमेशा से ही मेरी नज़्मों की प्रशंसिका रही हैं .... जब मेरी किताब ' खामोश चीखें ' उन्हें मिली तो तुरंत उन्होंने अपनी प्रतिक्रिया समीक्षात्मक रूप में लिख भेजी … आज वो दैनिक पूर्वोदय में प्रकाशित हुई है … और ये पहली बार हुआ कि समीक्षा पढ़कर मुझे कई फोन आये और पुस्तक मँगवाने की इच्छा ज़ाहिर की ……नीलिमा जी आप जैसी प्रशंसिका का ह्रदय से आभार ....
नीलिमा जी आपका पता गलती से समीक्षा के साथ नहीं छपा है जबकि छपना चाहिए था । इसलिए आपका पता मैं यहाँ दे रही हूँ ....
नीलिमा शर्मा
M-407 , guru harkishan nagar
Paschim vihaar ,New delhi
आभार समाचार-पत्र के सह - संपादक रवि शंकर रवि जी Ravishankar Ravi
अगर समीक्षा पढ़ने में दिक्कत हो तो इसे आप रविशंकर रवि जी की वाल पर भी पढ़ सकते हैं .....सादर





"क्या कहा ...?
 ओउरत मर्द का आधा हिस्सा होती हैं ?
 बताना  तो ज़रा ...
 तुमने इस आधे  हिस्से  के बारे 
 जिन्दगी में 
 कितनी  बार सोचा.... "?"
                                           "हरकीरत हीर " एक ऐसा नाम  जो नज्मो का पर्याय  सा लगता हैं   जब उनका नज्म संग्रह खमोश चीखां"  पंजाबी में आया था तो बेहद अफ़सोस हुआ था कि मुझे गुरमुखी पढनी क्यों नही आती " पर शायद रब ने  उनके चाहने वालो की सुन ली  और आगमन प्रकाशन  ने उनकी इस पुस्तक को हिंदी में प्रकाशित  किया   ,  हीर जी  से  जब यह पुस्तक  जब मुझे बाय पोस्ट मिली  तो मेरी ख़ुशी का पारावार   ना था  | आज की अमृता  की किताब  मेरी प्रिय अमृता  प्रीतम की किताबो के समकक्ष  हैं और उनकी बुक के आते ही यह  फीलिंग्स   थी 
 हरकीरत जी के शब्द  मेरे मन की आवाज़ सी 
 " लगता हैं आज 
 सबसे अच्छा दिन  हैं 
 रब्ब  से भी अच्छा 
 आज शब्दों की जरुरत नही 
 पानी की भी नही 
 न रोटी की ना हवा की 
 आज किसी  चीज की भूख नही 
 आज तुम्हारे ख़त में लिखा 
हर एक अक्षर मेरा है 
 वक़्त मेरे साथ चले ना चले 
 मैं मोहब्बत के साथ चल पड़ीं हूँ "
 पन्ना दर पन्ना   कही लफ्ज़ मुझे मेरे अपने से लगते कही  मुझे  लगता  कही अमृता प्रीतम की रूह तो हीर जी में  नही आन बसी 
 रूह का तो मालूम नही पर ज़ज्बातो को महसुसू करने की शिद्दत जरुर एक सी हैं 
 एक एक नज्म  दिल की गहराई से लिखी हुयी   हैं उनके लिखी पञ्च- छः  लाइन्स  भी एक मुकम्मल नज्म बन जाती हैं  देखिये एक बानगी 
" नज्म रात 
 इश्क के कलीरे बांध 
धीमे धीमे 
 सीढियां उतर 
 तारो के घर की और 
चल पढ़ी 
 खौफ जदा  रात  अंगारों पर 
 पानी डालती रानी "
 एक और नज़्म देखिये   गागर में सागर भारती सी 
" कोई ठंडी हवा का झोंका 
 आधी रात मेरे लहू में 
अक्षर-अक्षर हो 
 लिख जाता हैं किताब 
 कभी तो आ-
 दिल के तहखानो तक 
 जिसकी टूटी सत्रे जोड़ 
 कोई नज्म बना सके "
इश्क मोह्बात  रिश्ते अकेलापन तन्हाई  कोई भाव ऐसा नही जिसपर हीर जी के मन  से भाव न उभरे हो और उन्हें नज्म की सूरत न मिली हो ..
 इमरोज़ जी का उनको अमृता कहना किसी मायने में अतिश्योक्ति नही 
 " यह  कैसे पत्थर हैं सिसकते हुए ?
कही मिटटी कांपी  हैं ......."/ 
" आ आज की रात तुझे 
आखिरी ख़त लिख दूँ 
 टूटी हुयी सिसकती जिन्दगी में 
 कौन जाने फिर कोई रात आये ना आये "
 प्रेम  पर  बहुत से लोग लिख रहे हैं परन्तु प्रेम की पराकाष्ठा  को महसूस करना फिर माकूल लफ्ज़ में  उन     को माला बनाकर  जीना हर किसी के वश में नही हैं  .खुदा कुछ ही लोगो को हुनर देता हैंऔर  हीर  जी की तरह  उनको महसूस करना उस पर और भी कठिन 
                                        किस किस नज्म की यहाँ तारीफ़ करू ... माँ पर लिखी हुयी हो या फिर  रब्ब से किये हुए उलाहने हो  वक़्त की लकीरे हो या चुन्नियाँ |
                                                            लफ्ज़  लफ्ज़ में एक सम्मोहकता  हैं  एक पल  को पढ़कर भूल जाने वाले अक्षर नही यह  अपितु मन के अंदरूनी कोने तक बैठ जाने वाले  भाव हैं जिसे  बरसो बरस जिया जाएगा भीतर अपना मान कर |   नज्म में शामिल बिम्ब बहुत खूबसूरत हैं कही भी उन्हें जबरन शामिल किया हुआ नही  लिया हुआ लगता 
 टंग दी हैं 
 बाकी की उम्र अब 
 फर्जो की किली पर 
 हंसी का ख्याल भी अब 
 दर्द को उलाहने देता हैं 
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 पता नही  कितने रिश्ते  बिखरे पड़े  हैं मेरी देह पर 
 फिर भी तलाश जारी हैं 
 एक ऐसे रिश्ते की 
  जो लापता हैं उस दिन से 
 जिस दिन  से तूने बाँधी  थी डोर 
  एक नए रिश्ते से 
 और   मैं बिछुड़ गयी थी अपनी रूह से जुड़े 
उस रिश्ते से 
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 दर्द की महक यूँ ही नही महसूस होती 
जिन्दगी  भर चलना होता पड़ता  हैं फसलो के साथ 
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 मैं फिर जन्म लूंगी 
 सीने में जलती आग से  
 लिखूंगी नज्म 
 माँ के आंसुओ को हंसी में बदलने के लिय 
 बीजी की पीठ पर पढ़े निशानों को 
आग से लड़ना सिखाऊंगी ( आंसू आगये   अपनी मरहूम माँ जो याद आगयी )
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 वो तो बुत बनी थी 
जब उसे डोली में डाल 
उसके पर कतर 
पिंजरे  में डाल  दिया गया था 
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 आज फिर उसने कहा 
 ला हीर _______ मैं तुम्हारी नज्मो की किताब छपवा  दूँ 
 बता ! मैं इन हँसते जक्मो को कैसे तसल्ली दूँ 
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                                 कही कही तो लगता हैं हीर जी नज़्म लिखती नही हैं उनको जीती हैं  उनके रोजाना की बोलचाल के शब्द भी एक नज्म बन जाते होंगे   | , मन को झकझोरती कही तो कही कोमल भाव से मुस्कुराती , कही आक्रोशदिखाती  तो कही विधि के विधान के आगे  तो कही मजबूर दोशीजा सी हीर के नज्मो की यह पुस्तक एक अनमोल तोहफा मेरे संग्रह में |
                                                              एक पाठक  हूँ मैं कोई प्रोफेशनल समीक्षक  नही  इसलिय एक पाठकीय समीक्षा   करने की हिम्मत नही हो रही हैं . उस हीर की  लिखी खामोश चीखो " को कैसे शब्दों की माला पहना दूँ जिनकी गूंज  दूर दूर तक गूँज रही हैं  और निर्वात में हरेक उन लफ्जों से खुद को रिलेट कर रहा हैं  | जिनका परिचय ही पन्नो में नही समा सकता उनके लिखे लफ्जों को कैसे मैं चंद लफ्जों में  बयां कर दूँ  उस पर पुस्तक में बने रेखाचित्र सोने पर सुहागा  
                                                          इस पुस्तक को आप हीर जी  से कह कर भी भी मांगा सकते हैं या आगमन प्रकाशन   से भी  | पुस्तक की कीमत २०० रुपये  कही भी मायने नही रखती  अगर आप सचमुच नज़्म के गहरे भाव पढ़ने के आदि हैं .और उसके बाद उनको भीतर  जीने के भी ..\ सहेजने के भी 
 बाकौल हरकीरत हीर जी 
 ~~
"पता हैं 
 मैं ख़त नही हूँ \ ख़त होती तो कोई पढता\ कोई सहेज कर तो रखता / मैं तो नज्म हूँ /जिसे हर कोई  पढता तो हैं  / पर सहेजता नही "
  आप सबको यह संग्रह अवश्य पसंद आएगा 
 हीर जी आने वाली सभी पुस्तके कालजयी हो अहमे और भी , बार बार उनको पढने का मौका मिले यह  इच्छा रखती हूँ 
  इस शुभकामना के साथ उनके लिखे के साथ खुद  को रिलेट करते हुए  अपने लिखे शब्द  के साथ हार्दिक बधाई 
" मुझे तो गुमान था  फक्त  मिसराहूँ तुम्हारे ख्यालात का 
 तुमने तो मुझे  नज़्म / ग़ज़ल कहकर मुकम्मल कर दिया ."

अभी तो सुन रही हूँ उनकी खामोश चीखो के आर्तनाद को मन के गहरे  भीतरी कोनो में \से




 यह समीक्षा   दैनिक पूर्वोदय  में प्रकाशित हुयी हैं  रविवार 22/२/२०१५   को