सुबह सुबह उठो बेटे के लिय टिफ़िन बनाओ जब तक स्कूल न चला जाए उसके चारो तरफ घुमते रहो कि मम्मा रुमाल कहा गया? आज यह वाला बैग नही ले जाना , अरेय मेरी इंग्लिश की बुक कहा गयी यहाँ ही तो रखी थी मम्मा जाओ न गेट का लॉक तो खोलो जल्दी से और मेरी साइकिल भी गेट के पास तक ले आओ जरा प्लीज़ !!!
कभी कभी बड़ी खीझ सी होती हैं की इत्ता बड़ा हो गया फिर भी मम्मा को लॉकेट बनाकर हर वक़्त गले में लटकाए रखना चाहता हैं बस आज सुबह मैंने भी धमकी दे दी कि मैं तो जा रही हूँ कुछ दिन
के लिय दिल्ली ,तुम्हारे पास अब बुआ रहेगी कुछ दिन ......
अभी बेटे के जाने के बाद चाय का मग लेकर जैसे ही कमरे में आई तो लंच बॉक्स और ढूध का गिलास वैसे ही उसकी टेबल पर रखे हैं . साथ में एक चिट भी " बुआ को कोई फर्क नही पड़ेगा " मेवी " ने स्कूल लंच में क्या खाया क्या नही बस एक बार डांट देगी के लंच बॉक्स क्यों नही ले गया , पर मेरी माँ आज नाश्ता नही करेगी कि मेवी आज स्कूल में भूखा होगा सो ..आज के बाद मत कहना के मैं दिल्ली जा रही हूँ तुम तंग करते हो तुमको तंग न करू तो किसको करू .. ऐसे तो आप बोर हो जाऊगी जा ओगी और जल्दी से बूढ़ी भी .और मुझे हमेशा ऐसे ही मम्मी चाहिए जो मुझे डांट भी दे पर मेरी इंग्लिश बुक भी ढूढ़ कर दे जो मुझे सामने पढ़ी होने पर भी नही दिखती ......समझी मेरी माँ ........ अब यह नाश्ता आप खा लेना .आज मानसी का जन्मदिन हैं अभी उसका व्हात्ट्स उप आया हैं कि सब दोस्तों का लंच लेकर आएगी वोह "
अब क्या कहूँ मैं .नाश्ता खा रही हूँ लंच बॉक्स में से और सोच रही हूँ कि सच में बच्चे न हो तो जीवन में रस ही न रहे .. अगले साल जब यह होस्टल जायेगा तो कोई मुझे आवाज़ नही लगाएगा के मेरी बुक कहा गयी ???????
पर देखो न कैसे बिस्तर पर टोवल और कपडे फैला कर गया हैं ..... चलिय शुरू करते हैं अपना दिन
आप सबको भी नोंक- झोंक से भरा प्यारा सा अप्रैल का आखिरी दिन शुभ हो
कुछ भी नही !!! फिर भी बहुत कुछ !!! भीतर भीतर चलता हैं ............. अनचाहे ही ...अनजाने ही ...
Monday, April 29, 2013
Thursday, April 18, 2013
" गर्मी की छुट्टी और माँ
पीछे मुढ कर देखती हूँ तो याद आती हैं माँ और मेरी गर्मी की छुट्टिया
.जमाना अलग था ..... उन दिनों छुट्टी का मतलब था घर सम्हालना .. किताबो से परहेज करना मैं ठहरी किताबी कीड़ा .कैसे रह सकती थी किताबो के बिना ..... मेरी सुबह अखबार के साथ होती और शाम होती किसी न किसी नोवल संग .मांग कर पढना तब कभी बुरा नहीं माना जाता था , जब भी किसी मित्र रिश्तेदार के यहाँ कोई किताब देख जाती झट से पढने के लिय मांग लिया करते थे और ना सुन ने पर बुरा भी लगता था . अब माँ तो माँ होती हैं उनको लगता की उनकी जिद्दी सी बेटी किताबे ही पढ़ती रहेगी तो ससुराल मैं क्या करेगी और हमारा एक ही जवाब होता ....... हमें कोन सा शादी करनी हैं हम तो पढ़ेंगे और नौकरी करेंगे ... माँ कहती पढना या नौकरी करना अलग होता हैं पर घर का काम हर लड़की को आना चाहिए चाहे वोह खाना पकाना हो या फटे कपडे सिलना /करीने से लगाना . हम सोचते ही रहते की इस बार यह होगा गर्मियों में . नानी के घर जायेंगे बुआ के घर जायेंगे
पर ..........दिल के अरमान आंसुओ मैं बह गये .......... और हमें दाखिला दिलाया गया सिलाई कढ़ाई की कक्षा में .पाजामा
सिलने से शुरुवात हुयी और जल्दी हमने फ्रॉक सलवार कमीज और थैली वाली कट से पजामी सिलना सीख लिया अब तो हमें भी मजा आने लगा इनसब में .और अब हम दो दिन में कुछ भी नया सिलकर फिर माँ के सामने जा खड़े होते कि माँ बाजार से नया कपडा लाना हैं ....अब हर दो- तीन बाद नया कपडा कहा से लाती माँ ...... हमने सोचा क चलो अब हमारी छुट्टी होगी यहाँ से और हम फिर से सारी दोपहर 'शिवानी " के नोवेल्स पढेंगे .कब से " किस्श्नुली " पूरा नही हो रहा हैं
पर कहते हैं माँ तो माँ होती हैं ......माँ ने ताई जी और चाची जी से कहा कि जिसने जो सिलाना हो नीलिमा सिलाई सीख रही हैं इसको कपडा दे दो .......बस जी होना क्या था .हम अकेले और हमारे पास थैला भर कपडे दो दिन में इकठ्ठे हो गये .... हम माँ की तरफ कातर दृष्टि से देख रहे थे और माँ विजयी भाव से ............ इस तरह उन छुट्टियों में सीखी सिलाई हमें आज भी याद आती हैं जब हम अपने सूट काटकर उनसे कुशन बनाते हैं ................
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