Monday, November 2, 2015

व्यक्तिगत ज़िन्दगी

इंसान एक सामाजिक प्राणी हैं | खाना पीना सोना जागना सोचना बोलना  सब समाज से प्रेरित होता हैं | समाज सभ्यता का आइना होता हैं | संस्कारों का रक्षक होने का दावा भी करता हैं| परन्तु वास्तव  में समाज प्राणियों का समूह ही तो हैं | अपने को समाज में श्रेष्ठ साबित करने के लिय इंसान समाज के सामने एक अलग व्यवहार करता हैं परन्तु निजीतौर  पर उसका व्यवहार भिन्न होता हैं | सामाजिकप्रतिष्ठा भी सामाजिक व्यवहार पर निभर  हो जाती हैं | इतिहास गवाह हैं ऐसी हस्तियों का  जिनकी व्यक्तिगत जिन्दगी  और सामाजिक जिन्दगी में भिन्नता रही  | लोगो की व्यतिगत जिन्दगी  में झाँकने की परंपरा प्राचीन काल से चली आरही हैं | आज भी इतिहास के पन्ने खंगाले जाते हैं  फलां शासक की व्यकिगत जिन्दगी के अमुक रहस्य थे |नेपोलियन से लेकर  सद्दाम हुसैन , डायना  से लेकर अन्ज्लिना  जॉली , गुरुदत्त से लेकर रेखा तक  सभी सेलेब्रिटी के व्यक्तिगत जिन्दगी के तार  ढूढने के लिय  खोजी लोग दिन रात एक किये रहते हैं जबकि इनकी व्यक्तिगत जिन्दगी में क्या हो रहा हैं \था  उसका सामाजिक जिन्दगी पर कुछ भी असर नही पढ़ रहा था  लेकिन फिर भी उनकी   निजी लाइफ के किस्से चटकारे लेकर पढ़े लिखे जा राहे हैं | हर कोई महान नही होता  सामान्य व्यक्तित्व   के मालिक भी महान कार्य कर जाते हैं  तो महान भी सामान्य सी जिन्दगी जीने को आतुर होते हैं |  एक महान  लेखक से किसी ने पुछा  था कभी " आप जीवन में क्या लिखना चाहते हैं जो आप लिख नही सकते लेकिन " उन्होंने कहा  
 उन  क्षणों को  जो नितांत  गोपनीय   रहे   क्युकी अगर मैंने  उनको लिख डाला तो  लोग मुझे आम समझने लगेगे  मेरी महानता का एक ओउरा  जो उनके चारो तरफ हैं दरक जाएगा  < मैं भी एक आम इंसान हूँ मेरी भी कुछ इच्छाये हैं  मेरे भी कुछ डार्क साइड हैं  कही मैं भी जुनूनी हूँ |" तो क्या  कहा जाए क्या  हर इंसान अपने को सबके सामने उघाड़ कर रख दे?  फिर सबके सामने  उसका चरित्र चित्रण ( हनन) किया जाए .कुछ कमजोर पल हरेक की लाइफ में आते हैं गलतियां मौज मस्तियाँ  खामोशिया ,पश्चाताप  निजी होने चाहिए  |   समाज के सामने दोहरा जीवन  न जिया जाए लेकिन सबकुछ ओपन भी न किया जाए तो बेहतर रहता | हमारी व्यक्तिगत लाइफ तभी तक मजेदार और हमारी अपनी होनी चाहिए जब तक उस'से किसी एनी को नुक्सान ना हो | खोजी पत्रकारिता में ब्रेकिंग न्यूज़ ने  सबसे ज्यादा नुक्सान सबकी पर्सनल लाइफ को पहुँचाया हैं  |डायना स्पन्सर की मौत इसी वज़ह से हुयी , न उनके पर्सनल रिश्ते किसके साथ हैं खोजने को पत्रकार उनके पीछे दौड़ते ना  ना उनकी चार का एक्सीडेंट होता | नेहरु जी गाँधी जी   की मृत्यु पश्चात भी उनके व्यक्तिगत लाइफ स्टाइल को लेकर अनेकोने कहानिया अक्सर देखि सुनी पढ़ी जाती हैं| हरेक को अपनी पसंद से जीने का हक होना चाहिए , हरेक को हक हैं वो अपने दायरे में रहकार कुछ भी ऐसा करे जिस'से किसी का नुक्सान ना हो तो कोई हक नही बनता की हम उनकी लाइफ में दखल दे |इतिहास दफन घटनाओं संस्कारों  और घटनाओं का नाम हैं परन्तु एक समाचार बनाने के लिय किसी की भी व्यक्तिगत जिन्दगी पर पत्थर उछालना या  झांकना अपराध हैं| व्यक्तिगत स्वतंत्रता वैसे भी हर इंसान का मौलिक अधिकार हैं | वैसे लोग अपने दामन में लगे  कीचड को नही देखते और दूसरो के साफ  कपड़ो पर भी कोई दाग ढूढने की कोशिश में लगे रहते  
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हर इंसान की एक व्यक्तिगत ज़िन्दगी होती है 
मसलन उसके आम व्यक्तित्व से परे 
इतिहास के पन्ने विशेष नामों से भरे पड़े हैं 
वर्तमान में भी सोच से परे लोग जीते हैं कुछ व्यक्तिगत लम्हे ....
यदि इस व्यक्तिगत ज़िन्दगी से कोई नुक्सान नहीं है 

उसके कर्तव्यों में कोई अंतर नहीं है
ना ही वह दृष्टिगत है
तो क्या उसे रात-दिन अथक प्रयास से ढूँढना
और उछालना सही है ?
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Wednesday, March 11, 2015

महिलाओं को कागजों पर मिले अधिकार, हकीकत में नहीं


भारतीय समाज में स्त्री-पुरुष की बराबर की भागेदारी है, अपने अपने दायरे हैं, अपने अपने क्षेत्र हैंपुरातन काल में जब राजाओं का राज होता था तब आम स्त्रियों को घर से बाहर जाने की इज़ाज़त नहीं थीवह घरेलू क्षेत्र में ही अपनी भागीदारी निभाती थी.
समय परिवर्तन हुआ. अब स्त्रियां घर से बाहर पुरुषों के कंधे से कंधा मिलाकर उसकी सहयोगी बन गई हैं. दोनों क्षेत्रों में जूझती स्त्री को बार-बार उसके कर्तव्य तो याद दिलाए जाते हैं लेकिन क्या एक स्त्री को उसके अधिकार मालूम हैं?
इसका मुख्य कारण हैस्त्री में शिक्षा का अभाव और जागरूकता की कमी. कई महिलाएं तो शिक्षित होने के बावजूद अपने अधिकारों के प्रति अनभिज्ञ रहती हैं. समाज में कई वर्ग तो महिलाओं को बराबरी का दर्ज़ा देने के खिलाफ भी खड़े हो जाते हैं.
लेकिन, बराबर के अधिकारों की भागीदारी रखने वाली स्त्री को हमेशा दोयम दर्ज़े की जिम्मेदार स्त्री खुद भी है.
एक स्त्री को मालूम होना चाहिए कि -
1. उसे शिक्षा का अधिकार हैगांवों में आज भी लड़कियों को शिक्षित करना जरुरी नहीं समझा जाता, या उनको ऐसी शिक्षा लेने को मजबूर किया जाता हैं जिसका सीधा सम्बन्ध रोजगार से नहीं होता और व्यावाहारिक जिन्दगी में जिसकी महत्ता नहीं होतीपुत्रों की शिक्षा पर लाखों  खर्च करने वाले परिवार में स्त्री की शिक्षा से अधिक विवाह के लिए धन की जरुरत समझी जाती है, जबकि एक स्त्री के पढ़ने से तीन परिवार में संस्कार और वातावरण बदलता है.
2. श्रम शक्ति का अधिकार. पुरुषों से अधिक स्त्रियां काम काजी होती हैं, बड़े संस्थानों से लेकर खेतों-सड़कों पर मज़दूरी करती या फिर घरेलू काम काज के लिए सहायक रखी स्त्रियां.बड़े संस्थानों को अगर छोड़ दिया जाए तो बाकि स्तरों में स्त्रियों को उनके श्रम का पूरा भुगतान नहीं मिलतापुरुषों से कम ही मिलता हैघरेलु महिला उम्र भर बेरोजगार मानी जाती है, उसके श्रम की कोई महत्ता नही होती. परन्तु उसके बीमार होने या अन्य किसी कारण से जब उसके बदले में काम कराया जाता हैं तो उसका भुगतान किया जाता हैंकई संस्थानों में स्त्रियों के स्थान पर पुरुषों को वरीयता मिलती है.
3. भूमि और संपत्ति अधिकारभारतीय परिवारों में आज भी बेटी को संपत्ति में अधिकार नहीं दिया गया. बेटे चाहे कैसे हों और बेटियां दिलोजान से माता पिता की सेवा करती रहें, लेकिन अंत में संपत्ति बेटे को ही दी जाती है. बेटियों के विवाह पर हुए खर्च को उनका संपत्ति का हिस्सा करार देकर बेदखल कर दिया जाता है. लड़कियों की दशा शोचनीय तब हो जाती हा जब उनको पति की तरफ से अपना क़ानूनी हिस्सा लेन को मजबूर किया जाता है और मायके से बेदखलबेचारी बेटिया दोनों तरफ से मारी जाती हैं.
4. अच्छे स्वास्थ्य का अधिकारपूरे घर का स्वास्थ्य सही रहे इसकी चिंता करने वाली कभी अपने स्वास्थ्य का ख्याल नही रख पातीना कोई हॉस्पिटल ना कोई संतुलित भोजन उसको प्राप्त होता हैअपनी शारीरिक सरंचना की वज़ह से मातृत्व के समय उसे विशेष देखभाल की जरुरत होती है जो उसे बहुत कम प्राप्त होती है. महिला हस्पतालों की संख्या न्यून होने की वज़ह से और पारिवारिक संवेदनहीनता की वज़ह सेएक आम स्त्री अक्सर अस्वस्थ रहती हैं.
5. मन चाहा करियर चुनने का अधिकारलड़की क्या पढ़ेगी, क्या करेगी इसका फैसला माता-पिता करते हैं. शहरों में फिर भी कन्याओं को अपना करियर चुन लेने की स्वतंत्रता है लेकिन गांव-कस्बों में स्थिति बहुत दयनीय है.
6. अभिव्यक्ति का अधिकारसबसे ख़राब स्तिथि यहाँ है. लड़कियों और महिलाओं को अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाने का अधिकार नहीं है. बचपन से उन्हें चुप रहने की शिक्षा दी जाती है. सही या गलत का भेद करके अभिव्यक्ति की शिक्षा नहीं दी जाती.
7. हिंसा के विरोध का अधिकारअगर वह पुरुष सत्ता के पक्ष में झुकी रहती है तो सब कुछ ठीक रहता है. लेकिन जहाँ भी वह पुरुष सत्ता के किसी फैसले पर सवाल खड़ा करती है तो हिंसा की शिकार होती है गांव कस्बों में घरेलु हिंसा को सहज रूप से स्वीकार कर लिया जाता है. शहर में भी बंद दीवारों में इसकी शिकार महिलाएं सिसकती रहती हैं और नियति मानकार चुपचाप सहन करती हैं.
8. विवाह का अधिकारआज भी गोत्र-जाति-धर्म को हथियार बनाकर स्त्री को मनचाहा जीवन साथी चुन लेने का अधिकार नही दिया जाता हैं. अगर स्त्री कभी अपने मनचाहे लड़के से विवाह कर भी लेती है तो ऑनर किलिंग के मामले सामने आते हैं. शहरों में आज लड़कियों को मनचाहा जीवन साथी चुन लेने का अधिकार दिया जाता है परन्तु मूलत: आंकड़े इसके विपक्ष में ही रहते हैं.
9. स्त्रियाँ अपने अधिकारों के प्रति सचेत नहीं रहतीं. मौलिक अधिकार के साथ साथ नैतिक अधिकारों का भी परित्याग कर देती हैं. सबके लिए उम्र भर खटने वाली स्त्री चाहे कामकाजी हो या घरेलु, महिला हर जगह कमजोर ही मानी जाती है. अपवाद हर जगह होते हैं और अपवादों में से ही कहीं अगर एक स्त्री को सत्ता मिल जाती है तो दूसरी स्त्री का शोषण करने से भी वह नही चूकती.  घर परिवार में घरेलु हिंसा के अधिकतर मामलो में कोई दूसरी महिला ही कारण होती है चाहे वह बहन के रूप में हो, मां के रूप में हो या विवाह उपरांत किसी दूसरी स्त्री के रूप में.
10. स्त्री को अगर अपने लिए एक उन्नत शांतिपूर्ण जीवन चाहिए तो सबसे पहले उसे स्व से उठकर ‘सब मेरे जैसे’ की भावना से काम करना होगा. मेरी बेटी भी, मेरी बहु भी, मेरी मातहत भी, मेरी बॉस भी, सब एक सामान रहे व्यवहार में मन की मंशा सदैव आंतरिक संतुष्टि एवं वासुदेव कुटुम्भकम वाली रहनी चाहिए. स्त्री होना गुनाह नही है, एक वरदान है.

Thursday, February 26, 2015

खामोश चीखे___ हरकीरत हीर


नीलिमा शर्मा Neelima Sharrma हमेशा से ही मेरी नज़्मों की प्रशंसिका रही हैं .... जब मेरी किताब ' खामोश चीखें ' उन्हें मिली तो तुरंत उन्होंने अपनी प्रतिक्रिया समीक्षात्मक रूप में लिख भेजी … आज वो दैनिक पूर्वोदय में प्रकाशित हुई है … और ये पहली बार हुआ कि समीक्षा पढ़कर मुझे कई फोन आये और पुस्तक मँगवाने की इच्छा ज़ाहिर की ……नीलिमा जी आप जैसी प्रशंसिका का ह्रदय से आभार ....
नीलिमा जी आपका पता गलती से समीक्षा के साथ नहीं छपा है जबकि छपना चाहिए था । इसलिए आपका पता मैं यहाँ दे रही हूँ ....
नीलिमा शर्मा
M-407 , guru harkishan nagar
Paschim vihaar ,New delhi
आभार समाचार-पत्र के सह - संपादक रवि शंकर रवि जी Ravishankar Ravi
अगर समीक्षा पढ़ने में दिक्कत हो तो इसे आप रविशंकर रवि जी की वाल पर भी पढ़ सकते हैं .....सादर





"क्या कहा ...?
 ओउरत मर्द का आधा हिस्सा होती हैं ?
 बताना  तो ज़रा ...
 तुमने इस आधे  हिस्से  के बारे 
 जिन्दगी में 
 कितनी  बार सोचा.... "?"
                                           "हरकीरत हीर " एक ऐसा नाम  जो नज्मो का पर्याय  सा लगता हैं   जब उनका नज्म संग्रह खमोश चीखां"  पंजाबी में आया था तो बेहद अफ़सोस हुआ था कि मुझे गुरमुखी पढनी क्यों नही आती " पर शायद रब ने  उनके चाहने वालो की सुन ली  और आगमन प्रकाशन  ने उनकी इस पुस्तक को हिंदी में प्रकाशित  किया   ,  हीर जी  से  जब यह पुस्तक  जब मुझे बाय पोस्ट मिली  तो मेरी ख़ुशी का पारावार   ना था  | आज की अमृता  की किताब  मेरी प्रिय अमृता  प्रीतम की किताबो के समकक्ष  हैं और उनकी बुक के आते ही यह  फीलिंग्स   थी 
 हरकीरत जी के शब्द  मेरे मन की आवाज़ सी 
 " लगता हैं आज 
 सबसे अच्छा दिन  हैं 
 रब्ब  से भी अच्छा 
 आज शब्दों की जरुरत नही 
 पानी की भी नही 
 न रोटी की ना हवा की 
 आज किसी  चीज की भूख नही 
 आज तुम्हारे ख़त में लिखा 
हर एक अक्षर मेरा है 
 वक़्त मेरे साथ चले ना चले 
 मैं मोहब्बत के साथ चल पड़ीं हूँ "
 पन्ना दर पन्ना   कही लफ्ज़ मुझे मेरे अपने से लगते कही  मुझे  लगता  कही अमृता प्रीतम की रूह तो हीर जी में  नही आन बसी 
 रूह का तो मालूम नही पर ज़ज्बातो को महसुसू करने की शिद्दत जरुर एक सी हैं 
 एक एक नज्म  दिल की गहराई से लिखी हुयी   हैं उनके लिखी पञ्च- छः  लाइन्स  भी एक मुकम्मल नज्म बन जाती हैं  देखिये एक बानगी 
" नज्म रात 
 इश्क के कलीरे बांध 
धीमे धीमे 
 सीढियां उतर 
 तारो के घर की और 
चल पढ़ी 
 खौफ जदा  रात  अंगारों पर 
 पानी डालती रानी "
 एक और नज़्म देखिये   गागर में सागर भारती सी 
" कोई ठंडी हवा का झोंका 
 आधी रात मेरे लहू में 
अक्षर-अक्षर हो 
 लिख जाता हैं किताब 
 कभी तो आ-
 दिल के तहखानो तक 
 जिसकी टूटी सत्रे जोड़ 
 कोई नज्म बना सके "
इश्क मोह्बात  रिश्ते अकेलापन तन्हाई  कोई भाव ऐसा नही जिसपर हीर जी के मन  से भाव न उभरे हो और उन्हें नज्म की सूरत न मिली हो ..
 इमरोज़ जी का उनको अमृता कहना किसी मायने में अतिश्योक्ति नही 
 " यह  कैसे पत्थर हैं सिसकते हुए ?
कही मिटटी कांपी  हैं ......."/ 
" आ आज की रात तुझे 
आखिरी ख़त लिख दूँ 
 टूटी हुयी सिसकती जिन्दगी में 
 कौन जाने फिर कोई रात आये ना आये "
 प्रेम  पर  बहुत से लोग लिख रहे हैं परन्तु प्रेम की पराकाष्ठा  को महसूस करना फिर माकूल लफ्ज़ में  उन     को माला बनाकर  जीना हर किसी के वश में नही हैं  .खुदा कुछ ही लोगो को हुनर देता हैंऔर  हीर  जी की तरह  उनको महसूस करना उस पर और भी कठिन 
                                        किस किस नज्म की यहाँ तारीफ़ करू ... माँ पर लिखी हुयी हो या फिर  रब्ब से किये हुए उलाहने हो  वक़्त की लकीरे हो या चुन्नियाँ |
                                                            लफ्ज़  लफ्ज़ में एक सम्मोहकता  हैं  एक पल  को पढ़कर भूल जाने वाले अक्षर नही यह  अपितु मन के अंदरूनी कोने तक बैठ जाने वाले  भाव हैं जिसे  बरसो बरस जिया जाएगा भीतर अपना मान कर |   नज्म में शामिल बिम्ब बहुत खूबसूरत हैं कही भी उन्हें जबरन शामिल किया हुआ नही  लिया हुआ लगता 
 टंग दी हैं 
 बाकी की उम्र अब 
 फर्जो की किली पर 
 हंसी का ख्याल भी अब 
 दर्द को उलाहने देता हैं 
 ~~~~~~
 पता नही  कितने रिश्ते  बिखरे पड़े  हैं मेरी देह पर 
 फिर भी तलाश जारी हैं 
 एक ऐसे रिश्ते की 
  जो लापता हैं उस दिन से 
 जिस दिन  से तूने बाँधी  थी डोर 
  एक नए रिश्ते से 
 और   मैं बिछुड़ गयी थी अपनी रूह से जुड़े 
उस रिश्ते से 
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 दर्द की महक यूँ ही नही महसूस होती 
जिन्दगी  भर चलना होता पड़ता  हैं फसलो के साथ 
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 मैं फिर जन्म लूंगी 
 सीने में जलती आग से  
 लिखूंगी नज्म 
 माँ के आंसुओ को हंसी में बदलने के लिय 
 बीजी की पीठ पर पढ़े निशानों को 
आग से लड़ना सिखाऊंगी ( आंसू आगये   अपनी मरहूम माँ जो याद आगयी )
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 वो तो बुत बनी थी 
जब उसे डोली में डाल 
उसके पर कतर 
पिंजरे  में डाल  दिया गया था 
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 आज फिर उसने कहा 
 ला हीर _______ मैं तुम्हारी नज्मो की किताब छपवा  दूँ 
 बता ! मैं इन हँसते जक्मो को कैसे तसल्ली दूँ 
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                                 कही कही तो लगता हैं हीर जी नज़्म लिखती नही हैं उनको जीती हैं  उनके रोजाना की बोलचाल के शब्द भी एक नज्म बन जाते होंगे   | , मन को झकझोरती कही तो कही कोमल भाव से मुस्कुराती , कही आक्रोशदिखाती  तो कही विधि के विधान के आगे  तो कही मजबूर दोशीजा सी हीर के नज्मो की यह पुस्तक एक अनमोल तोहफा मेरे संग्रह में |
                                                              एक पाठक  हूँ मैं कोई प्रोफेशनल समीक्षक  नही  इसलिय एक पाठकीय समीक्षा   करने की हिम्मत नही हो रही हैं . उस हीर की  लिखी खामोश चीखो " को कैसे शब्दों की माला पहना दूँ जिनकी गूंज  दूर दूर तक गूँज रही हैं  और निर्वात में हरेक उन लफ्जों से खुद को रिलेट कर रहा हैं  | जिनका परिचय ही पन्नो में नही समा सकता उनके लिखे लफ्जों को कैसे मैं चंद लफ्जों में  बयां कर दूँ  उस पर पुस्तक में बने रेखाचित्र सोने पर सुहागा  
                                                          इस पुस्तक को आप हीर जी  से कह कर भी भी मांगा सकते हैं या आगमन प्रकाशन   से भी  | पुस्तक की कीमत २०० रुपये  कही भी मायने नही रखती  अगर आप सचमुच नज़्म के गहरे भाव पढ़ने के आदि हैं .और उसके बाद उनको भीतर  जीने के भी ..\ सहेजने के भी 
 बाकौल हरकीरत हीर जी 
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"पता हैं 
 मैं ख़त नही हूँ \ ख़त होती तो कोई पढता\ कोई सहेज कर तो रखता / मैं तो नज्म हूँ /जिसे हर कोई  पढता तो हैं  / पर सहेजता नही "
  आप सबको यह संग्रह अवश्य पसंद आएगा 
 हीर जी आने वाली सभी पुस्तके कालजयी हो अहमे और भी , बार बार उनको पढने का मौका मिले यह  इच्छा रखती हूँ 
  इस शुभकामना के साथ उनके लिखे के साथ खुद  को रिलेट करते हुए  अपने लिखे शब्द  के साथ हार्दिक बधाई 
" मुझे तो गुमान था  फक्त  मिसराहूँ तुम्हारे ख्यालात का 
 तुमने तो मुझे  नज़्म / ग़ज़ल कहकर मुकम्मल कर दिया ."

अभी तो सुन रही हूँ उनकी खामोश चीखो के आर्तनाद को मन के गहरे  भीतरी कोनो में \से




 यह समीक्षा   दैनिक पूर्वोदय  में प्रकाशित हुयी हैं  रविवार 22/२/२०१५   को