Sunday, August 11, 2013

सोच की परिधि

कितना भी सोचु कि अभी नही सोचूंगी पर सोचे फिर भी बार बार तुम्हे ही सोचती हैं और
सोच की परिधि से बाहर जाकर तुम " मैं" बन जाते हो और मैं खुद को भूल जाती हूँ .ये मन भी कितना बावला होता है न जिसको सोचना नही चाहिए वही सोचता हैं और जिन बातो को हमेशा अपनेदिमाग में रखना चाहिए वोह याद नही रखता हम हमेशा दायरों में रहकर अपनी सोचो को संकुचित रखते हैं तो तो भी सोचे बगावत कर जाती हैं . यह सोचे ही कभी हमें आसमान की अनंत उडान तो कभी रसातल की तरफ ले जाती हैं .सोचना इंसानी फितरत हैं इसलिय मैं भी सोचती हूँ बहुत कुछ ......हाँ बहुत कुछ ...पर आजतक मन का पक्षी अपनी उडान नही भर पाया .आज तक सोचे धरातल पर नही उतरी .आज तक त्रिशंकु की मानिद अटकी हैं .... नही सोच पाती मैं" तुम" बनकर और तुम बन' ना कोई आसान थोड़े हैं तुम तुम हो इसिलिय मैं सिर्फ मैं ही रह गयी हूँ सोचो में तुमको सोचते हुए अपने मन के कोने से ...........नीलिमा

1 comment:

nayee dunia said...

haan yah sach hai , soch bhi dharti ki tarah gol hi hoti hai . ghum fir kar fir wahi aa jati hai