आज फिर से दुधिया नही आया। .बहुत मुश्किल लगता हैं डोलू लेकर ढूध की डेरी पर जाकर लाइन में खड़े हो जाना और इंतज़ार करना अपनी बारी का तो उसको कह दिया भैया जी घर पर ही ढूध दे जाया करो और अब सुकून से घर पर ढूध का इंतज़ार करते
…… आज कल ढूध कुछ पीलापन लिए हैं तो बच्चे पीने में आनाकानी करने लगे उनको लगता हैं या आपने हल्दी मिलाकर पीने को दिया या फिर ढूध वाले अंकल जरुर कुछ मिलावट करते होंगे , अब यह मेरे शहरी बच्चे क्या जाने , जब गाय का ढूध आएगा तो पीला ही होगा न। ……ग़ाय के नाम पर मायका याद आ जाता हैं और बचपन भी। ……… किसान परिवार तो घर में गाय का होना लाजिमी था बड़ा परिवार आखिर कहा से बाहर के ढूध से पूरा पढता फिर सबको ढूध के इलावा दही लस्सी और घर का माखन भी चाहिए होता था और घर आने जाने वालो को लस्सी और ढूढ़ पिलाया जाता न की यह जहर जैसा कोला लिम्का । सो पापा ने हमेशा घर में गाय पाली ……।मुझे आज भी याद हैं जब पापा काली गाय लेकर आये थे मेरठ से और हम सब भाई बहन इंतज़ार कर रहे थे किअभी तक तो सफ़ेद गाय हैं घर में यह विलायती काली गाय कैसे होगी। …। और जब देखा तो ना जाने क्यों और कब एक मोह सा जाग उठा उस गाय को लेकर। माँ मुह अँधेरे उठ जाती और उनका पहला काम ही यही थाकि सुबह उठकर घेर( वोह घर जहाँ पर पालतू
मवेशी रखे जाते हैं ) में जाना और वहां पर गाय की सानी करना और पानी पिलाना। । फिर उनको नहला कर उनके नीचे से गोबर हटाकर स्थान (छप्पर)को साफ़ करना। हम कब माँ के साथ यह सब काम करने लगे याद भी नही अब कई बार माँ के घर से बाहर जाने पर खुद ही भूसा दाल कर उस में बिनौले और सरसों की खली मिलाकर सानी कर देते थे फ़िर धीरे धीरे माँ से ढूध धुहना भी सीख लिया घर में दो गाय थी तो उनका गोबर भी उठाकर कई बार तसले में भरकर छत पर ले जाते और फिर माँ उसके उपले बनाती तो हम भी बहादुर के साथ माँ की हेल्प करते और कभी कभी हम भी छोटे छोटे छेद करते थे उन उपलों में किसी न किसी सलाई या लकड़ी से। धीरे धीरे माँ ने उपले बनाने भी सिखाये। … तब कभी मना भी करते तो माँ कहती कि लडकियों को सब काम करना आना चाहिए क्या पता कैसे घर में शादी हो जाए, और जानवर को जानवर नही घर कासदस्य मान कर उसके सब काम करोगे तो कभी कोई काम गन्दा नही लगेगा और छोटा भी नही लगेगा । ……… और ना जाने क्यों किसी अन्य जानवर को पालतू रूप में स्वीकार करने का मन नही किया आज तलक। …। गाय को देखते ही आज भी न सिर्फ आदर भाव आता हैं अपितु माँ की सी भावनाए आती हैं अपनी माँ का उनसे जुड़ाव याद करके। अब शहर में रहने लगे हैं तो ढूध में स्वाद ही कहाँ माखन जितना मर्ज़ी अमूल का खा ले जो तृप्ति सफ़ेद वाले ताज़े ताज़े में वोह अब कहा। ……।
मन तो करता हैं अभी भी मेरे घर में गाय हो जैसे माँ के घर आज भी हैं तीन गाय। परन्तु स्थान की कमीबच्चो का नाक-भो सिकोड़ना और सबसे बड़ी बात अब सब करेगा कौन। ……अब तो आदत पढ़ गयी न। । अब क्या मैं गोबर उठा पाऊँ गी ?क्या मैं सुबह उठकर बेड टी का मोह त्याग कर पहले गायमाता की सेवा कर सकुंगी ………. अब सो कॉल्ड मोडर्न वाइफ बन गयी हूँ न। … अब पड़ोस की डेरी से जब तब गोबर की दुर्गन्ध आ रही हैं कहकर बच्चे परेशान हो जाते हैं तो क्या मैंने जब गाय का काम करूंगी तो उनको मेरे पास से एक अजीब सी स्मेल आएगी … गाय के प्रति प्रेम और उसको पालने की अभिलाषा मन के अन्दर किसी कोने मैं हैं जो अब बस कभी कभार एक रोटी या गुड देने के साथ सीमित हो गयी हैं । समय के साथ साथ खुद को बदलना पढता हैं कल कहना ही पड़ेगा ढूधिये को कि भैया भैंस का ही ढूध दे जाया करो कम से कम बच्चे पियेंगे तो सही .........................
अब पालतू गाय का ज़माना चला गया अब उनका स्थान सिर्फ तबेलो में ही रह गयी हैं
…… आज कल ढूध कुछ पीलापन लिए हैं तो बच्चे पीने में आनाकानी करने लगे उनको लगता हैं या आपने हल्दी मिलाकर पीने को दिया या फिर ढूध वाले अंकल जरुर कुछ मिलावट करते होंगे , अब यह मेरे शहरी बच्चे क्या जाने , जब गाय का ढूध आएगा तो पीला ही होगा न। ……ग़ाय के नाम पर मायका याद आ जाता हैं और बचपन भी। ……… किसान परिवार तो घर में गाय का होना लाजिमी था बड़ा परिवार आखिर कहा से बाहर के ढूध से पूरा पढता फिर सबको ढूध के इलावा दही लस्सी और घर का माखन भी चाहिए होता था और घर आने जाने वालो को लस्सी और ढूढ़ पिलाया जाता न की यह जहर जैसा कोला लिम्का । सो पापा ने हमेशा घर में गाय पाली ……।मुझे आज भी याद हैं जब पापा काली गाय लेकर आये थे मेरठ से और हम सब भाई बहन इंतज़ार कर रहे थे किअभी तक तो सफ़ेद गाय हैं घर में यह विलायती काली गाय कैसे होगी। …। और जब देखा तो ना जाने क्यों और कब एक मोह सा जाग उठा उस गाय को लेकर। माँ मुह अँधेरे उठ जाती और उनका पहला काम ही यही थाकि सुबह उठकर घेर( वोह घर जहाँ पर पालतू
मवेशी रखे जाते हैं ) में जाना और वहां पर गाय की सानी करना और पानी पिलाना। । फिर उनको नहला कर उनके नीचे से गोबर हटाकर स्थान (छप्पर)को साफ़ करना। हम कब माँ के साथ यह सब काम करने लगे याद भी नही अब कई बार माँ के घर से बाहर जाने पर खुद ही भूसा दाल कर उस में बिनौले और सरसों की खली मिलाकर सानी कर देते थे फ़िर धीरे धीरे माँ से ढूध धुहना भी सीख लिया घर में दो गाय थी तो उनका गोबर भी उठाकर कई बार तसले में भरकर छत पर ले जाते और फिर माँ उसके उपले बनाती तो हम भी बहादुर के साथ माँ की हेल्प करते और कभी कभी हम भी छोटे छोटे छेद करते थे उन उपलों में किसी न किसी सलाई या लकड़ी से। धीरे धीरे माँ ने उपले बनाने भी सिखाये। … तब कभी मना भी करते तो माँ कहती कि लडकियों को सब काम करना आना चाहिए क्या पता कैसे घर में शादी हो जाए, और जानवर को जानवर नही घर कासदस्य मान कर उसके सब काम करोगे तो कभी कोई काम गन्दा नही लगेगा और छोटा भी नही लगेगा । ……… और ना जाने क्यों किसी अन्य जानवर को पालतू रूप में स्वीकार करने का मन नही किया आज तलक। …। गाय को देखते ही आज भी न सिर्फ आदर भाव आता हैं अपितु माँ की सी भावनाए आती हैं अपनी माँ का उनसे जुड़ाव याद करके। अब शहर में रहने लगे हैं तो ढूध में स्वाद ही कहाँ माखन जितना मर्ज़ी अमूल का खा ले जो तृप्ति सफ़ेद वाले ताज़े ताज़े में वोह अब कहा। ……।
मन तो करता हैं अभी भी मेरे घर में गाय हो जैसे माँ के घर आज भी हैं तीन गाय। परन्तु स्थान की कमीबच्चो का नाक-भो सिकोड़ना और सबसे बड़ी बात अब सब करेगा कौन। ……अब तो आदत पढ़ गयी न। । अब क्या मैं गोबर उठा पाऊँ गी ?क्या मैं सुबह उठकर बेड टी का मोह त्याग कर पहले गायमाता की सेवा कर सकुंगी ………. अब सो कॉल्ड मोडर्न वाइफ बन गयी हूँ न। … अब पड़ोस की डेरी से जब तब गोबर की दुर्गन्ध आ रही हैं कहकर बच्चे परेशान हो जाते हैं तो क्या मैंने जब गाय का काम करूंगी तो उनको मेरे पास से एक अजीब सी स्मेल आएगी … गाय के प्रति प्रेम और उसको पालने की अभिलाषा मन के अन्दर किसी कोने मैं हैं जो अब बस कभी कभार एक रोटी या गुड देने के साथ सीमित हो गयी हैं । समय के साथ साथ खुद को बदलना पढता हैं कल कहना ही पड़ेगा ढूधिये को कि भैया भैंस का ही ढूध दे जाया करो कम से कम बच्चे पियेंगे तो सही .........................
अब पालतू गाय का ज़माना चला गया अब उनका स्थान सिर्फ तबेलो में ही रह गयी हैं
10 comments:
wah ji ... gaiya maiya kaise yaad aa gayee.......:)
badhiya aalekh!!
sach me wo jamana kahan raha, jab ghar ke darwaje par gaiya bandhi hoti thi....
भावप्रधान लेखन ..!
अनिवार्य है की साहित्यधर्मी ऐसे ही विलुप्त हो रही संवेदनाओं का आंकलन करके इन पर प्रकाश डालें !
बहुत ही मर्मस्पर्शी लेखन ! आभार साझा करने के लिए !
सादर !
अनुराग त्रिवेदी - एहसास
bahut badhiya , gaay ka dudh peelapan liye hi hota hai
भईनीलिमा जी आपने तो मेरे हृदय की बात कह
दी ,शुक्रिया।समय स्थान और परिस्थितियों ने मन के संवेदनात्मक धरातल को इस कदर तोड़ा
है कि लोग दुख में रोना और सुख में खुश होना भी भूल गए हैं।गाय से हमारे जो रागात्मक संबंध
थे वह ग्वाले के दूध से कहाँ हो पाएंगे?शहर के
वातावरण में मिट्टी की खुशबू कहाँ मिलेगी?सड़क पर टहलती गाय को गुड़ रोटी खिला कर
एक आस्था का निर्वाह भले हो वह संतुष्टि कहाँ
मिलेगी?
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज सोमवार (07-10-2013) नवरात्र गुज़ारिश : चर्चामंच 1391 में "मयंक का कोना" पर भी है!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का उपयोग किसी पत्रिका में किया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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शारदेय नवरात्रों की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
shukriya mukesh
shukriya anurag
shukriya upasna
shukriya omprakash ji
shukriya shastree ji
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